आवारा सजदे
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सजदे वोही आवारा हुये जाते हैं
दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर ना थी
लेके फिरती रही वहशत मुझको
एक ज़ख्म ऐसा ना खाया कि बहार आ जाती
दत तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझको
राह में टूट गय पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद एक खुदा चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके, "खुदा कोई नहीं"

